नमस्ते मेरे प्यारे पाठकों! आजकल हम सभी की ज़िंदगी में OTT प्लेटफॉर्म्स ने अपनी एक खास जगह बना ली है, है ना? कभी कोई नई वेब सीरीज़ आ जाती है तो कभी कोई बेहतरीन फ़िल्म, और देखते ही देखते हमारे कितने ही घंटे निकल जाते हैं। मैंने तो खुद अनुभव किया है कि कैसे एक रात में पूरी सीरीज़ खत्म हो जाती है और फिर सुबह सोचते हैं कि आखिर मैंने इतना समय कहाँ बिता दिया!

क्या आप भी कभी ऐसा महसूस करते हैं? ये सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, अब तो हमारी रोजमर्रा की आदत का एक अहम हिस्सा बन चुका है।पर क्या आपने कभी गहराई से सोचा है कि आप इन प्लेटफॉर्म्स पर असल में कितना समय बिताते हैं, और यह आपकी ज़िंदगी पर क्या असर डाल रहा है?
आजकल हर कोई अपनी डिजिटल आदतों को समझना चाहता है, खासकर जब कंटेंट की दुनिया हर दिन और बड़ी होती जा रही है। यह सिर्फ़ एक जिज्ञासा नहीं, बल्कि अपने समय और पसंद को बेहतर तरीके से प्रबंधित करने का एक मौका भी है। आइए, बिना किसी देरी के, इस पर गहराई से नज़र डालते हैं!
मनोरंजन का मायाजाल: मेरा OTT कनेक्शन
आज से कुछ साल पहले जब ये OTT प्लेटफॉर्म्स इतनी तेज़ी से पॉपुलर नहीं हुए थे, तब हम सभी टीवी पर अपने पसंदीदा शोज का इंतज़ार करते थे। मुझे याद है, हर रात 9 बजे परिवार के साथ बैठकर कोई न कोई धारावाहिक देखना एक रिवाज़ जैसा था। लेकिन अब तो समय की कोई पाबंदी ही नहीं रही!
जब मन करे, जो मन करे, देख लो। मेरे दोस्त अक्सर मुझसे पूछते हैं कि क्या मैंने नई वाली वेब सीरीज़ देखी? और मैं सोचता हूँ कि अरे यार, मेरे पास तो पुरानी वाली भी खत्म करने का टाइम नहीं मिला। यह एक मीठा जाल है, जिसमें हम सब खुशी-खुशी फंसते जा रहे हैं। मैंने खुद देखा है कि कैसे एक एपिसोड देखते-देखते रात के 2-3 बज जाते हैं और अगले दिन काम पर जाना मुश्किल हो जाता है। यह सिर्फ़ मेरी कहानी नहीं, मैंने कई लोगों से सुना है कि वे भी इस “एक और एपिसोड” के चक्कर में अपना रूटीन बिगाड़ लेते हैं। यह कहीं न कहीं हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है और इसे नकारना मुश्किल है।
क्यों हमें ये इतना पसंद है?
मुझे लगता है कि OTT की सबसे बड़ी खासियत इसकी सुविधा है। आपको अपनी पसंद का कंटेंट अपनी मर्ज़ी से, कभी भी और कहीं भी देखने की आज़ादी मिलती है। जब मैं सफर कर रहा होता हूँ या बस में बैठा होता हूँ, तो फ़ोन पर कोई सीरीज़ या फ़िल्म देखकर बोरियत दूर हो जाती है। घर में बैठकर, आराम से पॉपकॉर्न खाते हुए, बिना किसी विज्ञापन के अपनी पसंदीदा फ़िल्म देखना, यह अनुभव भला किसे पसंद नहीं आएगा?
यह एक ऐसी आज़ादी है जो हमें कहीं और नहीं मिलती।
क्या यह सिर्फ़ मनोरंजन है या कुछ और?
मेरे हिसाब से, यह सिर्फ़ मनोरंजन से कहीं ज़्यादा है। यह एक सांस्कृतिक बदलाव है। अब लोग कहानियों को अलग तरह से देखना और समझना चाहते हैं। मुझे याद है, जब मैं एक कॉलेज स्टूडेंट था, तो दोस्त एक फ़िल्म देखने के लिए सिनेमा हॉल जाते थे। अब हम सब अपनी-अपनी डिवाइस पर एक साथ, लेकिन अलग-अलग समय पर कोई वेब सीरीज़ डिस्कस करते हैं। यह हमारी बातचीत का भी एक नया ज़रिया बन गया है। हम अक्सर इस बात पर बहस करते हैं कि फलाँ किरदार को ऐसा नहीं करना चाहिए था, या अगला सीज़न कैसा होगा।
आपकी डिजिटल आदतें: कितना समय कहाँ जाता है?
सच कहूँ तो, मैंने कभी सोचा नहीं था कि मैं OTT पर इतना समय बिताऊँगा। पहले लगता था कि सिर्फ़ कुछ घंटे ही तो हैं, क्या फ़र्क पड़ता है। लेकिन जब मैंने अपने फ़ोन की ‘स्क्रीन टाइम’ रिपोर्ट देखी, तो मैं हैरान रह गया। औसत रूप से, मैं रोज़ाना 3-4 घंटे सिर्फ़ OTT ऐप्स पर ही बिता रहा था!
और वीकेंड पर तो ये आंकड़ा और भी बढ़ जाता है। मुझे याद है एक बार मेरे एक दोस्त ने मज़ाक में कहा था कि उसने अपनी पसंदीदा सीरीज़ के सारे एपिसोड 24 घंटे में देख डाले। हम सब हँसे, लेकिन अंदर ही अंदर मुझे एहसास हुआ कि कहीं मैं भी इसी राह पर तो नहीं हूँ। मुझे लगता है कि हम सभी को अपनी डिजिटल आदतों पर एक नज़र ज़रूर डालनी चाहिए। यह सिर्फ़ एक नंबर नहीं है, यह बताता है कि हम अपना कितना कीमती समय कहाँ लगा रहे हैं।
स्क्रीन टाइम ट्रैकिंग: मेरी आँखें खोलने वाला अनुभव
जब मैंने पहली बार अपने फ़ोन में स्क्रीन टाइम फीचर का इस्तेमाल किया, तो यह मेरे लिए एक चौंकाने वाला अनुभव था। मैं सच में विश्वास नहीं कर पा रहा था कि मैं हर दिन सोशल मीडिया और OTT ऐप्स पर इतना समय बिताता हूँ। एक हफ्ते का डेटा देखने के बाद मुझे लगा कि यार, इस समय में तो मैं कुछ और सीख सकता था, या अपने परिवार के साथ समय बिता सकता था। इससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि मेरी आदतें कहाँ और कैसे बदल रही हैं। मैंने महसूस किया कि अक्सर मैं बिना किसी खास वजह के बस कोई भी सीरीज़ खोल लेता था, सिर्फ़ इसलिए कि कुछ और करने को नहीं था।
क्या ज़्यादा स्क्रीन टाइम सेहत के लिए ठीक है?
मुझे नहीं लगता कि यह सिर्फ़ मेरी बात है। मेरे डॉक्टर दोस्त ने भी बताया था कि आजकल युवा और बच्चे आँखों में दर्द, सिरदर्द और नींद न आने की समस्या लेकर आ रहे हैं, और इसका एक बड़ा कारण अत्यधिक स्क्रीन टाइम है। मैंने खुद भी महसूस किया है कि जब मैं देर रात तक कोई सीरीज़ देखता हूँ, तो सुबह उठने पर आँखों में जलन और थकान महसूस होती है। यह सिर्फ़ शारीरिक ही नहीं, मानसिक सेहत पर भी असर डालता है। कई बार बहुत ज़्यादा कंटेंट देखने से दिमाग थक जाता है और नई चीज़ों पर फोकस करना मुश्किल हो जाता है।
कंटेंट की दुनिया में सही चुनाव: क्वालिटी बनाम क्वांटिटी
आजकल OTT पर इतना सारा कंटेंट उपलब्ध है कि क्या देखें और क्या नहीं, यह चुनना ही अपने आप में एक टास्क बन गया है। मुझे याद है, एक बार मैंने एक नए प्लेटफॉर्म का सब्सक्रिप्शन लिया और फिर मुझे समझ ही नहीं आया कि कहाँ से शुरू करूँ। हर तरफ़ ‘नया’, ‘ट्रेंडिंग’, ‘ज़रूर देखें’ जैसे टैग्स लगे थे। मैंने कई ऐसी सीरीज़ देखीं, जो मैंने सिर्फ़ इसलिए शुरू की क्योंकि सब उसके बारे में बात कर रहे थे, लेकिन बाद में मुझे लगा कि मेरा समय बर्बाद हो गया। अब मैंने अपना एक नियम बना लिया है: क्वालिटी को प्राथमिकता दो, क्वांटिटी को नहीं। मेरा अनुभव कहता है कि कुछ बेहतरीन चीज़ें देखो, भले ही वे कम हों, बजाय इसके कि बहुत सारी औसत चीज़ें देखकर अपना समय जाया करो।
मेरा पर्सनल रूल: फ़िल्टर करके देखें
मैंने यह सीखा है कि दूसरों की बातों पर आँख बंद करके भरोसा करने के बजाय, अपनी पसंद पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए। मेरे कुछ दोस्त हैं जो सिर्फ़ थ्रिलर देखते हैं, जबकि मुझे कॉमेडी और ड्रामा पसंद है। तो मैं उन्हीं की सलाह मानता हूँ जो मेरी पसंद से मिलते-जुलते हों। मैं अक्सर रिव्यूज पढ़ता हूँ, लेकिन सिर्फ़ उन्हीं रिव्यूज पर भरोसा करता हूँ जो असली लगते हैं, न कि पेड या प्रचार वाले। मुझे अब पता है कि कौन से डायरेक्टर और एक्टर्स का काम मुझे पसंद आएगा, इसलिए मैं उनकी नई रिलीज़ पर नज़र रखता हूँ।
बिना FOMO (Fear Of Missing Out) के आनंद लें
मुझे पता है, कई बार ऐसा होता है कि आपके दोस्त किसी नई सीरीज़ के बारे में बात कर रहे होते हैं और आपको लगता है कि यार, मैंने मिस कर दिया। इसे FOMO कहते हैं। मैंने भी कई बार इस FOMO के चक्कर में ऐसी सीरीज़ देखी हैं जो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आईं। अब मैंने यह बात समझ ली है कि दुनिया में इतना कंटेंट है कि आप सब कुछ देख ही नहीं सकते। तो क्यों न सिर्फ़ वही देखें जो आपको सच में पसंद आए और आपको खुशी दे?
अपना खुद का आनंद लें, दूसरों की रेस में शामिल न हों।
डिजिटल डिटॉक्स की अहमियत और मेरे आसान तरीके
जब मुझे अपनी स्क्रीन टाइम की आदत का पता चला, तो मैंने सोचा कि कुछ बदलाव लाना ज़रूरी है। मैंने ‘डिजिटल डिटॉक्स’ के बारे में सुना था, लेकिन यह मुझे बहुत मुश्किल लगता था। मुझे लगता था कि फ़ोन से दूर रहना मतलब दुनिया से कट जाना। पर जब मैंने छोटे-छोटे कदम उठाने शुरू किए, तो मुझे एहसास हुआ कि यह उतना मुश्किल नहीं है जितना मैं सोचता था। मेरे लिए यह सिर्फ़ फ़ोन या टीवी बंद करने की बात नहीं थी, बल्कि यह अपने दिमाग को रीसेट करने और कुछ नया करने का मौका था। मैं चाहता था कि मैं अपने समय का बेहतर उपयोग करूँ और सिर्फ़ मनोरंजन के पीछे भागता न रहूँ।
छोटे-छोटे ब्रेक से बड़ा फ़र्क
मैंने सबसे पहले जो बदलाव किया, वह था छोटे-छोटे ब्रेक लेना। जैसे, हर घंटे 15 मिनट के लिए फ़ोन को एक तरफ़ रख देना। इस दौरान मैं बाहर बालकनी में जाता था, या अपनी कुर्सी से उठकर थोड़ी स्ट्रेचिंग कर लेता था। शुरुआत में यह मुश्किल लगा, लेकिन धीरे-धीरे मुझे इसकी आदत पड़ गई। मैंने देखा कि इन छोटे-छोटे ब्रेक्स से मेरी आँखों को आराम मिला और मेरा दिमाग भी ज़्यादा फ्रेश महसूस करने लगा। अब मैं काम के बीच में भी ये ब्रेक लेता हूँ और इससे मेरी प्रोडक्टिविटी भी बढ़ी है।
मैंने कैसे बदला अपना शेड्यूल
मुझे याद है कि मैं रात को डिनर के बाद सीधे टीवी के सामने बैठ जाता था। अब मैंने यह आदत बदल दी है। डिनर के बाद मैं अपने परिवार के साथ थोड़ी देर टहलता हूँ, या हम सब मिलकर कोई बोर्ड गेम खेलते हैं। मैंने अपने फ़ोन पर कुछ ऐसी ऐप्स डाली हैं जो मुझे बताती हैं कि मैंने कितना समय बिताया और ज़रूरत पड़ने पर नोटिफिकेशन बंद कर देती हैं। मैंने यह भी तय किया है कि सोने से एक घंटा पहले मैं कोई भी स्क्रीन नहीं देखूँगा। यह बदलाव छोटा लगता है, लेकिन इससे मेरी नींद की क्वालिटी में बहुत सुधार आया है।
| गतिविधि | औसत दैनिक समय (मेरा अनुभव) | सुझाया गया समय (एक्सपर्ट सलाह) |
|---|---|---|
| OTT प्लेटफॉर्म्स | 3-4 घंटे | 1-2 घंटे |
| सोशल मीडिया | 2-3 घंटे | 30 मिनट – 1 घंटा |
| गेमिंग | 1-2 घंटे | 30 मिनट – 1 घंटा |
| अन्य डिजिटल गतिविधियां | 1-2 घंटे | 1-2 घंटे |
OTT प्लेटफॉर्म्स का आपके मूड और प्रोडक्टिविटी पर असर
मुझे लगता है कि OTT प्लेटफॉर्म्स का हमारे मूड और काम करने की क्षमता पर बहुत गहरा असर पड़ता है, और मैंने खुद यह अनुभव किया है। जब मैं कोई बेहतरीन सीरीज़ देखता हूँ, तो मेरा मूड बहुत अच्छा हो जाता है, और मुझे प्रेरणा मिलती है। लेकिन कभी-कभी, जब मैं बहुत ज़्यादा देखता हूँ, तो मुझे आलस और थकान महसूस होने लगती है। यह एक दोधारी तलवार जैसा है। मुझे याद है, एक बार मैंने किसी सीरीज़ के चक्कर में अपने काम की डेडलाइन मिस कर दी थी। उस दिन मुझे बहुत बुरा लगा था और मैंने सोचा कि यार, यह मनोरंजन मेरे लिए अच्छा नहीं है। हमें यह समझने की ज़रूरत है कि कहाँ पर रुकना है।
प्रेरणा या आलस? कौन जीतता है?

जब मैं कोई ऐसी डॉक्यूमेंट्री या सीरीज़ देखता हूँ जिसमें किसी की सफलता की कहानी होती है, तो मुझे सच में बहुत प्रेरणा मिलती है। मुझे लगता है कि मैं भी कुछ बड़ा कर सकता हूँ। लेकिन, अगर मैं घंटों तक सिर्फ़ ऐसी सीरीज़ देखता रहूँ जिसमें कोई ख़ास सीख न हो, तो अक्सर मुझे आलस आने लगता है। ऐसा लगता है कि कुछ भी करने का मन नहीं कर रहा। मेरा दिमाग सिर्फ़ कंटेंट कंज्यूम करना चाहता है, कुछ प्रोड्यूस नहीं करना। मुझे लगता है कि यह बहुत ज़रूरी है कि हम अपने कंटेंट की क्वालिटी पर ध्यान दें ताकि हमें सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, बल्कि कुछ सीखने को भी मिले।
मेरे काम पर इसका क्या असर पड़ा
जब मैंने अपने OTT देखने की आदत को कंट्रोल किया, तो मुझे अपने काम में भी सुधार देखने को मिला। पहले मैं अक्सर मीटिंग्स में या काम करते हुए भी सीरीज़ के बारे में सोचता रहता था। मेरा फोकस टूटता था। लेकिन जब मैंने समय निर्धारित किया और डिटॉक्स करना शुरू किया, तो मैं अपने काम पर ज़्यादा ध्यान दे पाया। मेरी प्रोडक्टिविटी बढ़ी और मुझे नई चीज़ें सीखने का भी समय मिला। मैंने महसूस किया कि जब आप अपने मनोरंजन को नियंत्रित करते हैं, तो आप अपनी ज़िंदगी के बाकी हिस्सों को भी बेहतर ढंग से नियंत्रित कर पाते हैं।
स्मार्ट तरीके से OTT का मज़ा कैसे लें?
OTT प्लेटफॉर्म्स हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं, और उन्हें पूरी तरह से छोड़ना शायद मुमकिन न हो, और न ही ज़रूरी। असली बात यह है कि हम उनका स्मार्ट तरीके से इस्तेमाल कैसे करें। मैंने कुछ तरीके अपनाए हैं जिनसे मैं मनोरंजन का पूरा मज़ा भी ले पाता हूँ और अपनी ज़िंदगी को बैलेंस भी रख पाता हूँ। मेरा मानना है कि अगर हम अपनी आदतों को समझते हैं और कुछ नियम बनाते हैं, तो हम इन प्लेटफॉर्म्स का भरपूर लाभ उठा सकते हैं बिना अपनी ज़िंदगी को डिस्टर्ब किए। यह सिर्फ़ खुद के साथ ईमानदार होने और कुछ अनुशासन रखने की बात है।
टाइमर लगाओ, नियम बनाओ
मैंने अपने लिए एक नियम बनाया है: मैं रोज़ाना सिर्फ़ एक या ज़्यादा से ज़्यादा दो एपिसोड देखूँगा। और इसके लिए मैंने अपने फ़ोन पर टाइमर भी सेट कर रखा है। जब टाइमर बजता है, तो मैं रुक जाता हूँ, चाहे एपिसोड खत्म हुआ हो या नहीं। शुरुआत में यह मुश्किल लगा, लेकिन अब यह मेरी आदत बन चुकी है। मैंने अपने दोस्तों को भी यह सलाह दी है और उनमें से कई ने बताया है कि यह तरीका उनके लिए भी काम कर रहा है। यह एक तरह का सेल्फ-कंट्रोल है जो आपको अपनी आदतों पर पकड़ बनाने में मदद करता है।
साझा अनुभव: दोस्तों और परिवार के साथ देखना
एक और तरीका जो मुझे बहुत पसंद है, वह है दोस्तों या परिवार के साथ मिलकर कोई सीरीज़ या फ़िल्म देखना। इससे यह सिर्फ़ मेरा पर्सनल स्क्रीन टाइम नहीं रहता, बल्कि एक साझा अनुभव बन जाता है। हम सब मिलकर हँसते हैं, बातें करते हैं, और कहानी पर चर्चा करते हैं। यह मनोरंजन को और भी मज़ेदार बना देता है। मुझे याद है, मेरे भाई और मैंने एक बार एक पूरी फ़िल्म सीरीज़ एक साथ देखी थी। यह सिर्फ़ फ़िल्में देखना नहीं था, बल्कि क्वालिटी टाइम बिताना था। इससे हमारी बॉन्डिंग भी मज़बूत हुई और हमने मनोरंजन का एक नया तरीका भी खोजा।
글 को समाप्त करते हुए
तो मेरे प्यारे दोस्तों, यह थी OTT प्लेटफॉर्म्स की हमारी दुनिया और उसे अपनी ज़िंदगी में कैसे बैलेंस करें, इस पर मेरी कुछ बातें। मुझे उम्मीद है कि मेरे अनुभव और सुझाव आपके लिए मददगार साबित होंगे। याद रखिए, मनोरंजन हमारी ज़िंदगी का एक ज़रूरी हिस्सा है, लेकिन इसे हमारी सेहत, काम और रिश्तों पर हावी नहीं होने देना चाहिए। अपनी आदतों पर नज़र रखिए, छोटे-छोटे बदलाव कीजिए और देखिए कैसे आप अपनी डिजिटल दुनिया को और भी बेहतर बना सकते हैं। आख़िरकार, ज़िंदगी सिर्फ़ स्क्रीन पर नहीं, बल्कि आसपास की असल दुनिया में भी तो जीनी है, है ना?
जानने योग्य उपयोगी जानकारी
1. अपनी स्क्रीन टाइम रिपोर्ट को नियमित रूप से चेक करें। यह आपके फ़ोन की सेटिंग में आसानी से मिल जाती है और आपको यह समझने में मदद करेगी कि आप अपना कितना कीमती समय कहाँ बिता रहे हैं। मेरा खुद का अनुभव रहा है कि यह रिपोर्ट अक्सर हमारी आँखें खोल देती है।
2. डिजिटल डिटॉक्स के लिए छोटे-छोटे कदम उठाएँ। एक साथ सब कुछ छोड़ने की कोशिश न करें, क्योंकि इससे निराशा ही हाथ लगेगी। मैंने पहले सिर्फ़ 30 मिनट का ब्रेक लेना शुरू किया था, और धीरे-धीरे इसे बढ़ाया। हर छोटी कोशिश मायने रखती है।
3. अपने लिए एक “नो-स्क्रीन” ज़ोन या “नो-स्क्रीन” टाइम सेट करें। जैसे, खाने के समय या सोने से एक घंटा पहले फ़ोन या टीवी से दूर रहें। इससे परिवार के साथ बातचीत बेहतर होती है और नींद भी अच्छी आती है।
4. OTT पर सिर्फ़ मनोरंजन ही नहीं, ज्ञानवर्धक कंटेंट भी देखें। कई प्लेटफॉर्म्स पर बेहतरीन डॉक्यूमेंट्रीज़ और एजुकेशनल सीरीज़ उपलब्ध हैं जो आपको कुछ नया सीखने का मौका देती हैं। इससे आपका समय सिर्फ़ पास नहीं होता, बल्कि उसका सदुपयोग भी होता है।
5. अपने पसंदीदा कंटेंट को दोस्तों और परिवार के साथ मिलकर देखें। यह सिर्फ़ मनोरंजन का एक ज़रिया नहीं, बल्कि एक सामाजिक अनुभव भी बन जाता है। इस तरह, आप अकेले स्क्रीन के सामने घंटों बिताने के बजाय, अपनों के साथ क्वालिटी टाइम बिताते हैं।
महत्वपूर्ण बातों का सारांश
आजकल की तेज़ी से बदलती डिजिटल दुनिया में OTT प्लेटफॉर्म्स हमारी ज़िंदगी का अभिन्न अंग बन गए हैं। मेरे अपने अनुभव से मैंने सीखा है कि जहाँ ये मनोरंजन का एक शानदार स्रोत हैं, वहीं अत्यधिक उपयोग से हमारी सेहत, रिश्तों और उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ सकता है। यह समझना बेहद ज़रूरी है कि हम इन प्लेटफॉर्म्स पर कितना समय बिताते हैं और कैसे हम अपने देखने की आदतों को नियंत्रित कर सकते हैं। स्मार्ट तरीके से OTT का उपयोग करने का मतलब है कि हम अपनी पसंद को प्राथमिकता दें, क्वालिटी कंटेंट चुनें और खुद के लिए कुछ नियम बनाएँ। डिजिटल डिटॉक्स कोई मुश्किल काम नहीं है, बल्कि यह खुद को रीसेट करने और अपनी ज़िंदगी में संतुलन लाने का एक बेहतरीन अवसर है। छोटे-छोटे ब्रेक लेकर, स्क्रीन-फ्री ज़ोन बनाकर, और परिवार व दोस्तों के साथ साझा अनुभव करके हम अपने मनोरंजन को और भी सार्थक बना सकते हैं। याद रखें, हमारा लक्ष्य मनोरंजन का त्याग करना नहीं, बल्कि उसे समझदारी और संतुलन के साथ अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाना है, ताकि हम डिजिटल दुनिया के साथ-साथ अपनी असल ज़िंदगी का भी पूरा आनंद ले सकें।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ) 📖
प्र: OTT प्लेटफॉर्म पर इतना समय क्यों बीत जाता है और हम इसका पता कैसे लगा सकते हैं?
उ: अरे मेरे दोस्तो, ये सवाल तो मेरे भी मन में कई बार आया है! मुझे याद है एक बार मैंने सोचा कि बस एक एपिसोड देखूँगा, और देखते ही देखते सुबह हो गई और पूरी सीरीज़ खत्म!
असल में, OTT प्लेटफॉर्म्स को इस तरह से डिज़ाइन किया गया है कि वे आपको लगातार जोड़े रखें। ऑटोप्ले फीचर, पर्सनलाइज़्ड रिकमेंडेशन, और हर नई सीरीज़ का सस्पेंस – ये सब मिलकर हमें एक जाल में फंसा लेते हैं, जिससे निकलना मुश्किल हो जाता है। मुझे खुद लगता है कि जब कोई अच्छी कहानी चल रही होती है, तो उसे बीच में छोड़ने का मन ही नहीं करता।
अब बात आती है कि हम इसका पता कैसे लगाएँ?
आजकल ज़्यादातर स्मार्टफोन्स में ‘डिजिटल वेलबीइंग’ या ‘स्क्रीन टाइम’ जैसे फीचर्स होते हैं। आप अपनी फ़ोन सेटिंग्स में जाकर देख सकते हैं कि आपने किस ऐप पर कितना समय बिताया है। मैंने खुद ये ट्राई किया है और कभी-कभी तो आँकड़े देखकर मैं भी हैरान रह जाता हूँ!
इससे हमें अपनी आदतों को समझने में मदद मिलती है और फिर हम खुद के लिए कुछ नियम बना सकते हैं।
प्र: OTT का हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी और आदतों पर क्या असर पड़ता है?
उ: सच कहूँ तो, मेरे हिसाब से OTT के दोनों पहलू हैं – अच्छे भी और थोड़े चुनौतीपूर्ण भी। एक तरफ़, इसने हमें दुनिया भर की कहानियों से जोड़ दिया है। घर बैठे हम अलग-अलग संस्कृतियों और विचारों को जान पाते हैं। मुझे तो कभी-कभी ऐसा लगता है कि मैं घर पर ही पूरी दुनिया घूम रहा हूँ!
ये तनाव कम करने और मनोरंजन का एक बेहतरीन ज़रिया भी है।
पर हाँ, इसके कुछ नुकसान भी हैं, जो मैंने personally महसूस किए हैं। कभी-कभी देर रात तक वेब सीरीज़ देखते रहने से नींद पूरी नहीं हो पाती, जिसका असर अगले दिन की प्रोडक्टिविटी पर पड़ता है। मैंने देखा है कि कई बार लोग दोस्तों और परिवार के साथ बिताने वाले समय की जगह OTT देखना पसंद करने लगते हैं, जिससे सोशल इंटरेक्शन कम हो जाता है। बच्चों पर तो इसका ख़ास असर होता है, क्योंकि वे पढ़ाई से ज़्यादा स्क्रीन पर ध्यान देने लगते हैं। मेरे एक दोस्त ने बताया था कि कैसे उसके बच्चे अब बाहर खेलने के बजाय घर में ही कार्टून देखते रहते हैं, और उसे इसे मैनेज करना मुश्किल लग रहा है। यह एक बारीक संतुलन है जिसे हमें समझना होगा।
प्र: OTT प्लेटफॉर्म पर मनोरंजन करते हुए भी अपने समय को बेहतर तरीके से कैसे मैनेज करें?
उ: ये एक बहुत ज़रूरी सवाल है और मेरे पास आपके लिए कुछ practical टिप्स हैं, जो मैंने खुद अपनाकर देखे हैं। सबसे पहले, खुद के लिए एक ‘देखने का समय’ तय करें। जैसे, मैं रोज़ रात को 9 से 11 बजे तक का समय सिर्फ़ मनोरंजन के लिए रखता हूँ। इससे ज़्यादा नहीं!
मैंने यह भी सीखा है कि ऑटोप्ले फीचर को बंद कर देना चाहिए। जब एक एपिसोड खत्म हो, तो आपको खुद तय करने का मौका मिले कि अगला देखना है या नहीं।
दूसरा, ‘वॉचलिस्ट’ का इस्तेमाल समझदारी से करें। एक साथ सब कुछ देखने की बजाय, अपनी प्राथमिकताएँ तय करें। जो फ़िल्म या सीरीज़ आपको सबसे ज़्यादा पसंद है, उसे पहले देखें और बाकी को बाद के लिए बचाकर रखें। मैंने तो अपने परिवार के साथ मिलकर एक ‘OTT बजट’ भी बनाया है, जिसमें हम तय करते हैं कि इस हफ़्ते कौन सी फ़िल्म देखेंगे। इससे साथ में समय भी बीतता है और हम सभी की पसंद का ध्यान भी रखा जाता है।
तीसरा, कभी-कभी तो डिजिटल डिटॉक्स भी बहुत काम आता है। हफ्ते में एक दिन ऐसा रखें जब आप कोई OTT प्लेटफॉर्म न देखें, और उस समय का उपयोग कुछ और सीखने या अपनों के साथ समय बिताने में करें। इससे मुझे हमेशा एक ताज़गी महसूस होती है और मैं अगले हफ्ते के लिए तैयार हो जाता हूँ। याद रखिए, OTT मनोरंजन के लिए है, हमारी ज़िंदगी को कंट्रोल करने के लिए नहीं!






